Wednesday, August 11, 2010

लोपा मक्खी:- एक परभक्षिया कीटनाशी

लगभग पच्चीस करोड़ साल से इस धरती पर बास कर रही इन किसान मित्र लोपा मक्खियों को विभिन्न देशों में अलग-अलग नजरिये से देखा जाता है। यूरोप व नई दुनियां के देशों में, लोपा मक्खियों को अक्सर बुरी नजर से देखा जाता है। इसीलिये तो इसे "शैतान की सूई, "कान-कटवी", "नरक की घोड़ी", "यमराज की घोड़ी" व 'सापों की सर्जन' आदि जैसे बुराई द्योतक नामों से पुकारा जाता है।
जबकि पूर्व एशिया और मूल अमेरिका के लोग इन लोपा मक्खियों को आदरमान के साथ देखते है। कुछ मूल अमेरिकी जनजातियां इन्हे शुद्ध पानी का प्रतीक मानती हैं जबकि अन्य तेज़ी, गतिविधि और नवीकरण का प्रतीक।
जापान में इन लोपा मक्खियों को साहस, शक्ति और खुशी का प्रतीक माना हैं। जापान और चीन में तो इन मक्खियों को पारंपरिक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
 इंडोनेशिया में इन लोपा मक्खियों के वयस्कों व अर्भकों को तेल में तल कर खाया जाता है।



भारत में इन कीटों को बरसात के आगमन के साथ जोड़ा जाता है। लोपा मक्खियों का जमीन के साथ-साथ मंडराना बरसात की निशानी माना जाता है। इनका आसमान में काफी उच्चे उड़ना धूप निकलने की निशानी व मध्यम उच्चाई पर उड़ना बादल छाने की निशानी माना जाता है। ये मक्खियाँ उडान के दौरान ही सहवास करती है और शिकार भी। ये मक्खियाँ अपने अंडे अमूमन तालाबों, झीलों या धान के खेतों में पानी की सतह पर देती हैं। इन अण्डों से निकलने वाले इनके उदिक निम्फ अपना गुज़ारा पानी में रहने वाले अन्य अकशेरुकीय जीवों को खा कर करते हैं। ये निम्फ सांस गुदा से लेते हैं क्योंकि इनके गलफड़े मलाशय में होते हैं। प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए ये निम्फ नौ-दस बार कांजली उतारते हैं।
लोपा-मक्खियाँ (Dragon Flies) एवं इनके अर्भक खाने के मामले में नकचढ़े नही होते। इन्हें जो भी फंस जाता है, उसे ही खा लेते हैं। इनके भोजन में मक्खी, मच्छर, तितली, पतंगें, मकड़ी व बुगड़े आदि कुछ भी हो सकता है। इन परभक्षियों के भूखड़पन का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि एक प्रौढ़ मक्खी प्रतिदिन अपने वजन से भी ज्यादा मच्छर निगल सकती है। धान की फसल में हानि पहुँचाने वाली तना छेदक व पत्ता-लपेट जैसी सूंडियों के पतंगों का उड़ते हुए शिकार करने में तो माहिर होती हैं ये लोपा। खेत में काम करते हुए किसानों के सिर पर मंडराने के पिछे भी इन मक्खियों का उद्धेश्य शिकार करना ही होता है।










Saturday, August 7, 2010

गुलाबी सूंडी - कपास का कीड़ा।


दुनिया भर में कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में शुमार यह गुलाबी सूंडी आजकल हरियाणा में  कम ही पाई जाती है। कीट वैज्ञानिक जगत में इस कीड़े को Pectinophora gossypiella के नाम से जाना जाता है। खानदान व गौत्र के हिसाब से यह कीट Lepidoptera क्रम के Gelechiidae कुल से संबंध रखता है। इस कीट की प्रौढ़ अवस्था यानि कि पतंगे आकार में छोटे व रंग में गहरे भूरे होते हैं। इसकी अगली पंखों पर काले धब्बे होते हैं तथा पिछली फंख किनारों से झालरनुमा होती हैं। रात को सक्रिय रहने वाले ये पतंगे शमा के प्रेम में परवान चढने वाले होते हैं। यह कीड़ा जुलाई से नवंबर तक सक्रिय रहता है।  हर साल कपास के खेत में इसके मादा पतंगों की पहली पीढी तो  बौकियों पर या फिर बौकियों के नजदीक टहनियों, छोटी व कच्ची पत्तियों के निचले हिस्सों पर एक एक करके सफेद व चपटे अंडे देती हैं। इसके बाद वाली पीढियां अपने अंडे एक-एक करके ही फूलों के बाह्यपुंजदल पर देती हैं। सामान्यतौर पर 3 से 4 दिनों में इन अंडों से तरुण सूंडियाँ निकलती हैं। पर ताप व आब की अनुकूलता अनुसार यह अंड-विस्फोटन आगे व पिछे भी हो सकता है। प्रारम्भिक अवस्था में ये सूंडियाँ क्रीमी कलर की होती हैं परन्तु बाद में इनका रंग गुलाबी हो जाता है। याद रहे यह रंगपलटी इन सूंडियों की चौथी कायापलटी में जाकर होती है।  ये सूंडियां कपास की फसल में बौकियों व फूलों पर हमला करती हैं। सूंडियों से ग्रसित फूल पूरी तरह नही खुलते। कपास के ये ग्रसित फूल बनावट में फिरकी या गुलाब के फूल जैसे हो जाते हैं। शुरुआती अवस्था में ही ये तरुण सूंडियां छोटे-छोटे टिंडों में घुस कर कच्चे बीजों को खाती हैं। टिंडे में घुसने के लिये बनाएं अपने सुराख को अपने मल से ही बंद कर देती है। इस कीट की यह सूंडिय अवस्था लगभग 12 से 15 दिन की होती है।








Friday, August 6, 2010

छैल-मक्खी - एक परभक्षिया कीटनाशी

छैल मक्खी अन्य छैल को खाते हिए।
आराम फरमाती छैल मक्खी
 छैल-मक्खी (Damsel fly) चौमासे (आमतौर पर जून, जुलाई और अगस्त) के दौरान विभिन्न फसलों में उड़ते हुए नजर आने वाली एक महत्वपूर्ण कीटखोर मक्खी है। हरियाणा में इसे तुलसा के नाम से जाना जाता है। लंबे, संकरे व पारदर्शी पंखों वाली ये मक्खियाँ कई रंगों में पाई जाती हैं। इन्हें लोपा-मक्खियों (Dragon flies) के मुकाबले कमजोर उड़ाकू माना जाता है। उड़ने की प्रतियोगिता में उपरोक्त कीटों की हार-जीत से किसानों का क्या लेना-देना। किसानों के लिये तो यह जानकारी फायदेमंद है कि इस छैल-मक्खी के प्रौढ़ व अर्भक, दोनों ही मांसाहारी होते है। यह मक्खी अपने अंडे खड़े पानी में देती है। पानी चाहे गावं के जोहड़ या जोहड़ी में हो या फिर धान के खेत में हो। इस कीड़े के अर्भक पानी में पाये जाने वाले मच्छर के लार्वा समेत उन अन्य सभी कीटों का शिकार कर लेते हैं जो आकार में इनके बराबर या छोटे हों। धान की फसल को हानि पहूँचाने वाले विभिन्न फुदकों का शिकार करने में इन्हें बहुत आनंद आता है। वैसे तो इस कीट के अर्भक पानी में रहते हैं लेकिन खाने के लिए अन्य कीड़ों की तलाश में धान के पौधों पर चढ़ने में इन्हें गुरेज नही होता। इस मक्खी की कुछ प्रजातियाँ तो मकड़ियों को भी खा जाती हैं, मकड़ी के जाले के पास मँडराते- मँडराते ही जाले में से मकड़ी को दबोच लेती हैं। भोजन के लिये अन्य कीड़ों का अभाव होने पर यह मक्खियाँ आपस में ही एक दूसरे को खा जाती हैं। शायद भोजन में इतनी विविधता के कारण ही भोजन श्रृंखला में इन्हे उच्चा दर्जा हासिल है।
आराम फरमाती छैल मक्खी।
रति रत जोड़े।
आराम